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आ च॑ष्ट आसां॒ पाथो॑ न॒दीनां॒ वरु॑ण उ॒ग्रः स॒हस्र॑चक्षाः ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā caṣṭa āsām pātho nadīnāṁ varuṇa ugraḥ sahasracakṣāḥ ||

पद पाठ

आ। च॒ष्टे॒। आ॒सा॒म्। पाथः॑। न॒दीना॑म्। वरु॑णः। उ॒ग्रः। स॒हस्र॑ऽचक्षाः ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:34» मन्त्र:10 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:25» मन्त्र:10 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! जैसे (वरुणः) सूर्य के समान (उग्रः) तेजस्वी जन (सहस्रचक्षाः) जिसके वा जिससे हजार दर्शन होते हैं वह सूर्य (आसाम्) इन (नदीनाम्) नदियों के (पाथः) जल को खींचता और पूरा करता है, वैसे हुए आप मनुष्यों के चित्तों को खींच के जिस कारण विद्या को (आ, चष्टे) कहते हैं, इससे सत्कार करने योग्य हैं ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो विद्वान् सूर्य के तुल्य अविद्या को निवार के विद्या के प्रकाश को उत्पन्न करता है, वही यहाँ माननीय होता है ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्स विद्वान् कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथा वरुण उग्रः सहस्रचक्षास्सूर्य आसां नदीनां पाथ आकर्षति पूरयति च तथाभूतो भवान् मनुष्यचित्तान्याकृष्य यतो विद्यामाचष्टे तस्मात्सत्कर्तव्योऽस्ति ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (चष्टे) समन्तात्कथयति (आसाम्) (पाथः) उदकम् (नदीनाम्) (वरुणः) सूर्य इव (उग्रः) तेजस्वी (सहस्रचक्षाः) सहस्रं चक्षांसि दर्शनानि यस्माद्यस्य वा ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो विद्वान् सूर्यवदविद्यां निवार्य विद्याप्रकाशं जनयति स एवात्र माननीयो भवति ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो विद्वान सूर्याप्रमाणे अविद्येचे निवारण करून विद्येचा प्रकाश उत्पन्न करतो तोच माननीय असतो. ॥ १० ॥